बूढ़ी आंखें
बूढ़ी आंखें
उन बूढ़ी आंखों की झुर्रियां आज मुझे साफ़ दिख रही थीं,
मां मेरे बच्चों के लिए दिए के उजाले में कुछ लिख रही थीं।
कुछ चेहरे जो बन के मुखौटे टंगे थे ताख पर उसे ताकते थे,
देखते थे कभी चेहरा कभी वे आंखों के आइने में झांकते थे।
अंधियारे में भी उसकी दोनों आंखें प्यार से दमक रही थीं,
शायद उसके नूर से ही दिए में रोशनी भी चमक रही थी।
बालों से चांदी झांकती थी, कपड़े स्याह थे मुख में कान्ति थी,
यह भी पता हुआ क्यों दुनिया दुखी पर मेरे मन में शान्ति थी।
रोशनी का एक समंदर उस कोठरी में हिलोरें लहरा रहा था,
देखने को वो रूहानी मंजर मैं बहुत वक्त तक ठहरा रहा था।
वक्त ठहरे एक बार तो मैं फिर मैं मां के आंचल में गुम जाऊं,
उस जन्नत की दौलत का शायद फिर से मैं थोड़ा सुख पाऊं।
होता था इल्म ऐसा दूरियों से जहां दिल अंधियारा हो गया था,
आज वहां मां की नज़दीकी रौशनाई से उजियारा हो गया था।