बोझ
बोझ
सिर पर रखे लकड़ियों के
गठ्ठर से ज्यादा बोझ
एक जो माँ के पेट के अन्दर है
और दूसरी जो गोद में।
उठाई मुनिया को लेकर चल रही माई
एक राहगीर बोल ही दिया
माँ तुम कमाल करती हो।
तुम्हारा बोझ मनुष्य
इस जन्म तो क्या कई जन्मों तक
नहीं उठा सकता।
खुद भूखी रह लेती हो
और बच्चों के पूछने पर कहती हो
मैंने खा लिया और झूठी
डकार मारती हो पेट भर गया।
तुम्हारी ताप समुद्र की
लहरों के जैसे जो
उछाल तो मारती है पर
जलन बिल्कुल भी नहीं।
कितना शीतल छाँव देता
तुम्हारा ये मैला आँचल
मेहनत के
गर्द रेतों से भरा।
कितना ही लड़ झगड़ लो
पर चूल्हे की आँच पर
अपनी जिंदगी सेंक कर
परोस ही देती हो।
घर के बड़े बुजुर्ग
पति और बच्चों को
खाली हांडी में से अमृत कण।
तुम्हारी त्याग और तपस्या
ऋषि मुनियों की
तपस्या से भिन्न है।
जननी जन्मभूमिश्च
स्वर्गादपि गरीयसी
यूँ ही तो नहीं कहते माँ।
मैं सोचने लगता हूँ
इतनी पीड़ा और बोझ
ढोते हुए थक नहीं जाते
तुम्हारे कंधे।
फिर भी तुम
कितनी ही थकी हुई हो
फैला ही देती हो
अपने बच्चों के लिए,
ममतामई स्नेहमई आँचल
और छाँव में लेट कर
तरो ताज़ा हो जातें
छोटे-बड़े सभी बच्चे।