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suman singh

Romance

4.6  

suman singh

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भटका आशिक

भटका आशिक

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423


उस चाँदनी रात में , मिट्टी के धोरों पर,

आशिक़ अपने हाथ फैलाए पड़ा है ।

बचपन में शीतलता देने वाला चाँद ,

आज उसे बैरी सा लगाने लगता है ।

खिलते हुए चाँद में आशिक,

अपनी महबूबा की सूरत खोजने लगता है ।

सूरत तो दिख जाती है लेकिन ,

जबाब ना आने पर चाँद आशिक को,

चिढ़ाने लगता है ।

मामा कहलाने वाला चाँद आज उसे ,

बैरी सा लगने लगता है ।

दिन-भर बाँसूरी बजाता घूमता है ,

महबूबा की गलियों में तो लोग उसे ,

भिखारी समझने लगते है ।

जिस चीज को छूआ महबूबा ने,

उस चीज को छूने का मन करता है ।

दिन -भर कान लगाता फिरता है दिवारो पर,

अपनी महबूबा की आवाज सुनने को लेकिन ,

सभी उसे चोर समझने लगते है ।

शाम ढलने पर, उसी मिट्टी के धोरो पर,

महबूबा का नाम अपने नाम से जोड़ने लगता है ।

फिर निकलने लगता है चाँद ,

फिर उसे बैरी सा लगने लगता है ।

कई रातें बीत चुकी है , चाँद से बतियाने पर ,

लड्डडू पेड़े की आस दिखाने वाला चाँद ,

आज उसे ठेंगा दिखाने लगता है ।

उस आशिक के जख्मों का उपहास उड़ाने लगता है

बचपन में शीतलता देने वाला चाँद ,

आज उसे बैरी सा लगने लगता है ।



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