भटका आशिक
भटका आशिक
उस चाँदनी रात में , मिट्टी के धोरों पर,
आशिक़ अपने हाथ फैलाए पड़ा है ।
बचपन में शीतलता देने वाला चाँद ,
आज उसे बैरी सा लगाने लगता है ।
खिलते हुए चाँद में आशिक,
अपनी महबूबा की सूरत खोजने लगता है ।
सूरत तो दिख जाती है लेकिन ,
जबाब ना आने पर चाँद आशिक को,
चिढ़ाने लगता है ।
मामा कहलाने वाला चाँद आज उसे ,
बैरी सा लगने लगता है ।
दिन-भर बाँसूरी बजाता घूमता है ,
महबूबा की गलियों में तो लोग उसे ,
भिखारी समझने लगते है ।
जिस चीज को छूआ महबूबा ने,
उस चीज को छूने का मन करता
है ।
दिन -भर कान लगाता फिरता है दिवारो पर,
अपनी महबूबा की आवाज सुनने को लेकिन ,
सभी उसे चोर समझने लगते है ।
शाम ढलने पर, उसी मिट्टी के धोरो पर,
महबूबा का नाम अपने नाम से जोड़ने लगता है ।
फिर निकलने लगता है चाँद ,
फिर उसे बैरी सा लगने लगता है ।
कई रातें बीत चुकी है , चाँद से बतियाने पर ,
लड्डडू पेड़े की आस दिखाने वाला चाँद ,
आज उसे ठेंगा दिखाने लगता है ।
उस आशिक के जख्मों का उपहास उड़ाने लगता है
बचपन में शीतलता देने वाला चाँद ,
आज उसे बैरी सा लगने लगता है ।