बहती नदी
बहती नदी
मैंने बहती नदी को देखा,
इठलाती बलखाती थी।
हौले हौले हर लहर में,
सिमट सिमट रह जाती थी।
बाधाएं जब जब आतीं,
जोश से तब भर जाती थी।
पत्थर से टकराकर के,
टुकड़ों में बंट जाती थी।
धीरे से फिर समेट खुद को,
जीवन में आगे बढ़ती थी।
एक नया संघर्ष स्वीकार ,
उत्साह से भर सी जाती थी।
वही नदी आज मुझे क्यों,
थकी थकी सी लगती है।
पुरानी जीवनतता भी अब,
उसमें क्यों नहीं दिखती है।
सबका जीवन भी शायद,
ऐसा ही होता होगा।
अंत समय आते आते ही,
चंचलता खोता ही होगा।
एक शांति चाहता होगा,
मृत्यु में समाने से पहले।
जीवन मरण के प्रश्न को,
शायद सुलझा लेता होगा।
मैंने बहती नदी को देखा,
इठलाती बलखाती थी।
आज उसी चंचल सरिता को,
गांभीर्य में लिपटा देखा।