भिक्षु - चक्षु
भिक्षु - चक्षु
चमक हार कर तरल चक्षु से,
देखें ये नभ सारा,
दूर - दूर तक खोज रहे हैं,
जिसको सदा पुकारा।
कथा अनसुनी अपनी सब,
चिथड़ों में नरम लपेटे,
उनमें से ये ताक रहे हैं,
छिप कर के जग सारा।
ना है नयनजल ना ही हलचल,
सबसे छले गए ये,
वज्राहत से बैठे देखें,
उठते रंग - मुखौटे।
क्या सच्चा, क्या झूठा, सब कुछ,
है प्रत्यक्ष यहाँ से,
इन चिथड़ों के पीछे ही है,
लगता जादू सारा।
कपट - स्वार्थ सब फेंके घूँघट,
खड़े लाज बेचे हैं,
इन आँखों ने ही बस देखा,
बिगड़े बच्चे भगवन के,
एक कटोरा, एक दरी सी,
बिछा पड़े कोने में,
तरस रहे मानवता को,
इनने ही बस पहचाना।
चमक हार कर तरल चक्षु से,
देखें ये नभ सारा,
दूर - दूर तक खोज रहे हैं,
जिसको सदा पुकारा।