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दीप्ती ' गार्गी '

Abstract

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दीप्ती ' गार्गी '

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भिखारी

भिखारी

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कभी मिल जाता इलाज भूख का

रोटी के कुछ टुकड़ों में

कभी मिल जाती है बिन मांगे

गंदी गाली मुझको उजले कपड़ों में


फिर भी हाथ फैलाता हूँ

क्या करूं ये पेट बड़ा ही पापी है

अरे दो घूंट पानी के

पीकर सोना नाकाफी है


धरती को बिस्तर बना

आसमां ओढ़ कर सोता हूँ

नैनन का जल सूख गया

मैं सूखे आंसू रोता हूँ


मैं भले ही भिखारी हूँ धन से

पर मन से मैं कंगाल नहीं

इस खाली पेट से भी मैं

भर भर के दुआएं देता हूँ


तुम खुश रहना इस दुनिया में

उम्मीद यही करता हूँ

मैं तो भूख से लड़कर इक

हर रोज एक नई मौत मरता हूँ


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