भीख का बाजार
भीख का बाजार
जब जब मेरा भीड़ से गुजर ना हुआ,
तब तब उन तरसती आंखों से मेरा सामना हुआ।
आह! कितनी गहराई तक दर्द भरा था,
जब उस नन्ही-सी जान ने मेरी तरफ देखा था।
हाथ फैलाए मांग रही थी वो, भीड़ में खड़े उन पुतलों से,
कुछ से फेर लेते थे मुंह, कुछ देते थे दुत्कार
फिर भी मुस्कुरा देती वह जहां मिलता थोड़ा सा भी आभार,
हाय! धिक्कार! उन निकम्मों पर
जो उसकी दयनीयता की आड़ में चला रहे ' भीख का बाजार'
"रोंद डाला मानवता को उनके लोभ ने या गुम हो गई कहीं ' कलयुगी ' शोर में ?"