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Vinay Singh

Abstract

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Vinay Singh

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भीड़तंत्र

भीड़तंत्र

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भीड़ का अपना हीं,एक चरित्र है,

हर कोई लगता यहाँ,एक मित्र है, 

लग रहा सब देखते,एक दृष्टि से, 

मन में लेकिन,चल रहा बहुचित्र है, 


क्रोध रुपि अश्व पे सब हैं सवार, 

कुछ सुशिक्षित,और उसमें कुछ गवांर, 

न्याय करने का सबब,जिसमें नहीं, 

भांजते है,शक्ति रुपि वे विचार, 


अतिवाद व आवाज उनका मित्र है, 

भीड़ का अपना हीं,एक चरित्र है, 


लूट जाती हैं,कई जिन्दगानियां, 

छूट जाती उन्माद युक्त निशानियाँ, 

आह भरने का सबब जिसमें नहीं, 

लिखते,आंसुओं की धार की वे कहानियाँ, 


जो समर्थित कर रहा,वो विचित्र है, 

भीड का अपना हीं,एक चरित्र है, 


निज देश को लूटते हैं,वे खुंखार बन, 

लुट रहे वे,आबरू को काल बन, 

राह चलने का सबब जिसमें नहीं, 

छोड जाते दरिंदगी की निशानियाँ, 


इस काल का मानव बडा विचित्र है, 

भीड का अपना हीं,एक चरित्र है, 


 कानून भी असहाय सा है दीखता, 

 इस काल वह, बेभाव में है बिकता, 

 दो चार लाशें गिर चुकी हों, भूमिपर, 

 तब भाजता, कानून की वो लाठियां, 


कानून नामक सख्श भी, विचित्र है, 

भीड़ का अपना हीं, एक चरित्र है।


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