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sumit

Classics

3  

sumit

Classics

||भावना ||

||भावना ||

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एक निर्जन अपराह्न में,

सोच रहा था अपने अंतर्मन में ||

 नाम, यश, ख्याति के अंधे मोह में,

 छोटी छोटी ख़ुशियां, ना रही मेरे मानव-खोह में ||

भविष्य के नाम पे करे सब संचय,

 यह सोच कर की, सब भोगेंगे निश्चय ||

कल नहीं , आज में ही है यह जीवन ,

महामारी ने सिखायी, न मानो, तो है मरण ||


आज मैं हूँ बहुत दूर, नहीं मेरे बंग में।  

फिर भी उसका जीवनरस, बसा है मेरे अंतरंग में || 

जिस मिट्टी में तुम पले, और हुए इतने बड़े , 

समर्पण से, उसका लालन-पालन करे ,जैसे मूर्तिकार कोई  प्रतिमा गढ़े||


आधुनिकीकरण के नाम पे, किया पश्चिम का अनुकरण,

 महान कीर्ति से भरी इस मिटटी का, किया उपहास और बहिष्करण||

समय अभी मिला है अगाध अनंत ,

जाने इस देश का हर कोना , हर दिग-दिगंत||


महामारी ने दिखाया ,क्या है तुम्हारा असल कर्म,

एकता और सदभावना ही है तुम्हारा प्रकृत धर्म ||

प्यार-समादर से भरा हो नवयुग का प्रभास ,

इसी स्वप्न की पूर्ति हेतु हम दिन-रात करे प्रयास ||


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