||भावना ||
||भावना ||
एक निर्जन अपराह्न में,
सोच रहा था अपने अंतर्मन में ||
नाम, यश, ख्याति के अंधे मोह में,
छोटी छोटी ख़ुशियां, ना रही मेरे मानव-खोह में ||
भविष्य के नाम पे करे सब संचय,
यह सोच कर की, सब भोगेंगे निश्चय ||
कल नहीं , आज में ही है यह जीवन ,
महामारी ने सिखायी, न मानो, तो है मरण ||
आज मैं हूँ बहुत दूर, नहीं मेरे बंग में।
फिर भी उसका जीवनरस, बसा है मेरे अंतरंग में ||
जिस मिट्टी में तुम पले, और हुए इतने बड़े ,
समर्पण से, उसका लालन-पालन करे ,जैसे मूर्तिकार कोई प्रतिमा गढ़े||
आधुनिकीकरण के नाम पे, किया पश्चिम का अनुकरण,
महान कीर्ति से भरी इस मिटटी का, किया उपहास और बहिष्करण||
समय अभी मिला है अगाध अनंत ,
जाने इस देश का हर कोना , हर दिग-दिगंत||
महामारी ने दिखाया ,क्या है तुम्हारा असल कर्म,
एकता और सदभावना ही है तुम्हारा प्रकृत धर्म ||
प्यार-समादर से भरा हो नवयुग का प्रभास ,
इसी स्वप्न की पूर्ति हेतु हम दिन-रात करे प्रयास ||