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कवि अखिलेश ठाकुर

Drama Inspirational

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कवि अखिलेश ठाकुर

Drama Inspirational

भाग्य और कर्म

भाग्य और कर्म

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ना हाथों मे लकीरें कुछ,

ना किस्मत का ठिकाना हैं।

यहाँ हर बादशाहत का,

भाग्य ही बस बहाना है।।


कर्म को छोड़ के हर नर,

उलझ जाता लकीरों में।

भाग्य के ही सहारे आज,

खुद बेघर जमाना है


भाग्य के ही सहारे नर,

कर्म सुख छोड़ देता है।

गुजरती हर निगाहों का,

कर्म मुख मोड़ लेता है।।


भाग्य और कर्म में,

अक्सर लड़ाई रोज होती है।

भाग्य मन तोड़ देता है,

कर्म फिर जोड़ लेता है।।


अरे मन मूर्ख बन कर क्यूँ,

भाग्य के गीत गाता है।

भाग्य का साथ है दिन सा,

जो खुद ही बीत जाता है।।


भाग्य पन तू गोते क्यूँ,

लगाता है लकीरों के।

अलौकिक कर्म से ही नर,

भाग्य को खुद बनाता है।।


देखो लकीरें हाथ की,

कुछ कह रही नर से।

कर्म मत बन्द करना तुम,

भाग्य की मार के डर से।।


हाथ जिनके नही होते वो,

नर भी काम करता है।

क्या वो नर कर्म करना छोड़ दे,

दुर्भाग्य के डर से।।


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