बेटियों उठो
बेटियों उठो
मन की तड़प आह बनकर फूटती है। लेकिन यही आह जब आग बन जाती है तब प्रलय का तांडव होता है। अब समय आ गया है जब हर दिल की आह आग बन जाए, फिर एक महाभारत हो, और फिर से एक नूतन स्वस्थ समाज का निर्माण हो।
बेटियों उठो
उतार फेंको
लाज का वह घूँघट
उन कलुषित मुखों पर जो
तुम्हें लजाने की बात कहते हैं।
अंधेरों के कृत्य से
काला और घिनौना मुख लिए
ये राक्षस घूमते रहते हैं
बेधड़क चौक चौबारों में,
कब तलक किस किस से
और क्यों अपने आप को
छुपाती फिरोगी???
उठो, आगे बढ़ो
और तब तक बढ़ती रहो
जब तक अपने दर्द की कटार से
चीर न दो उन दरिन्दों का
दागदार दामन।
तुम्हारी हर आह पर
अभिव्यक्तियों के नाम पर
झूठी हमदर्दी दिखाने वाले
तुम्हें और बांधते जाएंगे।
सच कहूँ तो तुम्हें डराने की
हर जुगाड़ बैठाएंगे,
अपने कुकृत्य पर डालने को पर्दा
तुम्हें ही लजाने की नसीहत दे
तुम्हारी हृदय की निष्कलुषता को
दागदार कर डालने की मुहिम चलाएंगे।
हे बेटियों! उठो, जागो और
तोड़ डालो लाज की वह जंजीर
जो चरित्र का प्रमाणपत्र देती है।
ये प्रमाणपत्रों को बांटने वाले
हाथ एक व्यापारी के हैं
जो हर बार तौलता है
अपनी झूठी सहानुभूति ,
तुम्हारे हृदय के आह की तराजू पर
समाज के अपशब्दों की बोली के
बटखरे धरे हैं।
हे बेटियों! जीवन तुम्हारा लुटा है
उठो, जागो और पोत दो स्याही
हर उस चेहरे पर जो तुम्हें
मुंह छुपाने को कहता है।