मन की आवाज़
मन की आवाज़
मैं नारी हूँ,
अक्सर चुप रहती हूँ
पर मन में मेरे भी
चलती रहती है
कुछ बातें - सुनो
कभी-कभी
मन करता है
उमड़ती लहरों को
बांधकर एक डोर से
गागर में भर कर
सागर की अथाह
गहराईयों में
औंधे मुँह डाल आउँ
कतर कर पंख ख्वाहिशों के
काले घने अंधेरों में
चुपचाप क़हीं खो जाउँ।
कभी-कभी
मन करता है
उमड़ती-घुमड़ती
लहरों को लहराऊँ
धर प्रचंड रूप
धरा को थरथराऊँ
विष के अंकुर
फूटने से पहले
सम्पूर्ण सृष्टि को
लील जाऊँ
कभी-कभी
मन करता है
मन के गागर को
सागर कर जाउँ
बादल बनकर
आसमाँ में छा जाउँ
उड़ती फिरूँ पखेरु सी
चिड़ियों संग चहचहाउँ
धरा के आँगन में
कुछ ख्वाहिशों के बीज
छींट आऊँ
बन बारिश की बूंदें
जीवन को हरषाऊँ।
