बेटी
बेटी
बेटी!
उत्साह, खामोशी और चुप्पी
समाये एक दीपक
की तरह रोशन
करती है दो परिवारों को
अपनी रोशनी लिए
जिस पर भार है
दो कुलों की प्रतिष्ठा का
कभी वह रही
माँ के आंचल में
कभी बन खुद
माँ का आँचल
वात्सल्य देती रही
कभी धर्म बनी, कभी कर्म
विपत्ति आने पर तलवार
तो कभी ममता की मूरत
प्रेम की देवी, सेवा की प्रेरणा
कभी कर्तव्य का फूल बन
अपने लिए शूल भी चुना
रही समर्पित कर्तव्य पथ पर
लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा
बनकर भी
जब हुई जवान तो
बेटी पराया धन कह
विदाई दी
बाबुल के आंगन की
शोभा बनी
तब भी स्वागत हुआ
इन्ही शब्दों से
पराई बेटी को
नाज़ों से रखेंगे
इतिहास
यही दोहरा रहा है
मन की बगिया में
बेटी को कब तक
पराया धन कहोगे
बेटी ही है जो
जीवन पर्यंत
दो कुलों को
पल्लवित
करती अपने
संस्कार और मर्यादा में
बेटे से ज्यादा
कर्तव्य निभाती
दो परिवारों का
दो संस्कृतियों की
बगिया का फूल है
जिसकी महक सेबेटी ही है जो
जीवन पर्यंत
दो कुलों को
पल्लवित
करती अपने
संस्कार और मर्यादा में
बेटे से ज्यादा
कर्तव्य निभाती
दो परिवारों का
सुवासित होते दो कुल
बेटी ही घर का खजाना है
बेटी ही मन का मकरन्द है
परिवार का गौरव
समाज की रौशनी और
सबकी ताकत है
वह पराई नहीं
दोनो घरों की सुगंध है।
