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Sumit. Malhotra

Abstract

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Sumit. Malhotra

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बेखुदी में उनका ख़्याल।

बेखुदी में उनका ख़्याल।

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मेरे ख़्वाबों में जो सरेआम आके मुस्कुराया करते,

बेखुदी में ही जिनका ख़्याल आ गया था हमको।


अब ये कैसी अज़ान सी दस्तक की आहट हुई थी,

तेरे जिस्म की महक तो बेवफ़ा सनम कतई ना थी।


यारों ख़्वाबों में ही तो अब वो आते-जाते रहते हैं,

हकीकत में ऐसा अब दूर-दूर तक मुमकिन नहीं।


सुख-चैन की सुकून भरी नींद तो नहीं होगी नसीब,

अब तो कोई चमत्कार ही उन्हें ला सकता क़रीब।


आग़ाज़ तो होता है पर अंज़ाम ही क्यों नहीं होता,

मेरी प्रेम-कहानी में उस बेवफ़ा का नाम नहीं होता।


जितनी पास-पास सांसें ज़िंदगी हमसे उतनी दूर-दूर,

बुलाता रहा मैं उनको जो अब हो गई बड़ी मगरूर।


अब बस जिस्म ख़त्म हो और रुह को चैन आए,

फिर ना अधेरा-उजाला चाहे और ना दिन-रात।



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