बेकार की मनोदशा
बेकार की मनोदशा
जाग जाता हूँ सुबह ही आँख अब लगती नहीं
दिन गुजरता ही नहीं और रात कटती है नहीं
ऐसा लगता है मैं कोई व्यर्थ सा सामान हूँ
है कदर न जिसकी कोई खोया वो सम्मान हूँ
प्यार बीवी के नजर में वैसी अब दिखती नहीं
है खफा वो खूब लेकिन मुँह से कुछ कहती नहीं
पहले सी चहरे पे उसके अब हसी दिखती नहीं
मेरी ये उदास आँखे झूठ कह सकती नहीं
चिढ़चिढ़ा सा हो गया हूँ बस यु हीं लड़ जाता हूँ
छोटी-छोटी बातों पे मैं बच्चों पे चिल्लाता हूँ
मेरे होने से घर में बच्चे सहम से जाते है
साथ खेलते थे कभी जो कोने में छिप जाते है
नौकरी रही नहीं और पैसे कम हो गए
आज पहली बार घर में सब भूखे पेट सो गए
हाथ फ़ैलाने का मौका पहली बार आ गया
मेरी बेकारी का आलम पुरे घर में छा गया
देखकर कमरों को लगता जेल सा माहौल है
फंस के रह गया हूँ इनमे मकड़ियों सा जाल है
घर में मैं बैठा हुआ हूँ खुद को ये मलाल है
अपनो की महफ़िल में मेरा अजनबी सा हाल है
जल्दबाजी हर तरफ और दौड़ के वो भागना
दस मिनट समय से पहले काम पे पहुँचना
अब किसी हड़बड़ी की जुस्तजू रही नहीं
कायदा रहा नहीं और आरज़ू बची नहीं
देर हो जाने का दर डर मुझे लगता नहीं
लौट के घर देर से अब मैं कभी आता नहीं
किसको कहते है भटकना आके कोई देख ले
वक़्त कैसे काटता है ये हमसे कोई सीख ले
कुछ दिनों और जो ये सिलसिला चल जाएगा
मैं रहूंगा ज़िंदा पर ये हौसला मर जाएगा
खामोश सा मैं हो गया हूँ कुछ भी ना कह पाऊंगा
आज बेबसी को अपने साथ में ले जाऊंगा।