बेगुनाह
बेगुनाह
बहुत कुछ है दिल में फिर क्यों कह नहीं पाता
दर्द छुपाने की आदत है फिर क्यों सह नहीं पाता
क्या किसी को खुशियां देना ही गुनाह है मेरा
यदि हां तो फिर बेकसूर क्यों मैं रह नहीं पाता
गीली आंखें बताती है कि मेरी मुस्कान झूठी है
आंख तक आ जाता है आंसू पर बह नहीं पाता
न जाने किस मिट्टी से बनाया है खुदा ने मुझे
कई बार कुरेदा जाता हूं पर मैं ढह नहीं पाता