बदलाव हेतु हम खुद को ही बदलें
बदलाव हेतु हम खुद को ही बदलें


कहते हैं केवल न बदलते निज आचरण,
तभी विषाक्ततर सतत् हो रहा है पर्यावरण।
पर दोष लख अनदेखा करते खुद की कमी,
सपने देखते गगन के भूल हकीकत की जमीं।
स्वार्थ में सुनते न जो कहता निज अंत:करण,
कहते हैं केवल न बदलते निज आचरण,
तभी विषाक्ततर सतत् हो रहा है पर्यावरण।
कर रहे प्रकृति मां शोषण भूलकर के सीमा,
सबके जीवन में घोले जाते जहर है ये धीमा।
धरा है बचानी तो गहें प्रकृति मां की शरण,
कहते हैं केवल न बदलते निज आचरण,
lor: rgb(0, 0, 0);">तभी विषाक्ततर सतत् हो रहा है पर्यावरण।
जलाते हैं हर वर्ष रावण न बन पाते हैं राम,
स्वार्थ लोभ आलस से दुर्गुण हो जाते आम।
आधुनिकता दौड़ छोड़ लें सनातन की शरण,
कहते हैं केवल न बदलते निज आचरण,
तभी विषाक्ततर सतत् हो रहा है पर्यावरण।
करें परस्पर मदद एक दूजे के बनकर सहायक,
तब धरती मां बनेगी हम सबके रहने के लायक।
रखें मानवता बचाए हम रोक नैतिकता का क्षरण,
कहते हैं केवल न बदलते निज आचरण,
तभी विषाक्ततर सतत् हो रहा है पर्यावरण।