STORYMIRROR

Sudhir Srivastava

Abstract

4  

Sudhir Srivastava

Abstract

बदल रहा इंसान

बदल रहा इंसान

1 min
8

चार दिन की जिंदगी , लीजिए  आप संज्ञान।
नित मानव में बढ़ रहा ईश  से  ज्यादे   ज्ञान।
गलतफहमी में जी रहा खुद को मानें विद्धान।
सबसे ज्यादा आजकल,  बदल  रहा  इंसान।।

कलियुग के इस दौर में, भांति - भाँति के लोग।
इस बदलाव के चक्र  में,   नया  नहीं  है  रोग।।
समझ  लीजिए  आप  भी, बाँट  रहे  वो  ज्ञान।
सबसे  ज्यादा  आजकल, बदल  रहा  इंसान।।

बदहाली  का  हो  रहा,    सबसे  ज्यादा  शोर।
फिर भी उनको लग रहा,  नई सुबह की भोर।।
हमको  होता  क्यों  नहीं,     कोई   पूर्वानुमान।
सबसे  ज्यादा  आजकल, बदल  रहा  इंसान।।

रिश्तों में नित हो रहा,  अपने  पन  का  अंत।
फिर भी हम इठला रहे, कहते खुद को संत।।
कहाँ  किसी को दे रहा, अब  मानव  सम्मान।
सबसे  ज्यादा  आजकल, बदल  रहा इंसान।।

आज स्वयं ही स्वयँ को, धोखा देते लोग।
बदले  में  हैं  भोगते,  फैलाते  जो  रोग।।
कहाँ  किसी का है बचा, दीन -धर्म-ईमान।
सबसे ज्यादा आजकल, बदल रहा इंसान।

देखा - देखी हो रहा, छल - प्रपंच भरपूर।
अपने ही अब हो रहे, अब अपनों से दूर।।
समझाए  कोई  मुझे,   ये कैसा है विधान।
सबसे ज्यादा आजकल, बदल रहा इंसान।।

सुधीर श्रीवास्तव (यमराज मित्र)


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract