बचपन: एक कोरा कागज़
बचपन: एक कोरा कागज़
किस्से बचपन के वो प्यारे,
याद आ गए आज वो सारे,
कितना निःश्छल मन अपना था,
आज़ाद जहां से एक सपना था,
जीवन मिट्टी के बर्तन सा,
रोज़ नया बनाते थे,
ना भाया यदि मन को कुछ,
तो रंगों से उसे सजाते थे,
ना चिंता ना दुनियादारी,
ना बंधन ना मोह बीमारी,
जीवन के अध्याय नए थे,
कुछ हम नए बनाते थे,
नए नए किस्से गढ़ते थे,
दिल से हम बातें करते थे,
कोरे कागज़ से जीवन को,
चित्रों से भरते जाते थे,
ना मतलब अपनों का जाना था,
दुनिया को अपना माना था,
परियों की एक कथा था जीवन,
कल्पना में उसे बिताते थे,
तब जब मन सा सच्चा था बातें सच्ची,
नासमझ कहलाते थे,
और आज झूठ की चादर ओढ़े,
बन समझदार इतराते हैं,
तब कोरे कागज़ से जीवन को,
कई रंगों से भरते थे,
पर अब रंग पुराने इतने हैं कि,
नए रंग नहीं चढ़ पाते हैं।
