बच्चों से हो पिता की पहचान
बच्चों से हो पिता की पहचान
चाहत होती हर एक पिता की,
छुए उच्च शिखर उसकी संतान।
बचपन में उससे थी बच्चे की,
फिर बच्चे से हो उसकी पहचान।
पिता-गुरु की यह सदा होती है चाहत,
जीवन की दौड़ में वे नंबर दो हो जाएं।
जितना किया विकास है निज जीवन में,
बच्चे उससे तो कहीं बहुत आगे जाएं।
बढ़े अबाध-गति से विकास के पथ पर,
बढ़ती इससे है उनकी हर पल ही शान।
बचपन में उससे थी बच्चे की,
फिर बच्चे से हो उसकी पहचान।
हद से भी ज्यादा हर पिता श्रम करता है ,
निज संतान का उत्कृष्ट भविष्य बनाने को।
तत्पर हर हालत में उसकी शुभता हित रहता,
असहनीय और अगणित ही कष्ट उठाने को।
संतति तो है उसकी कीर्ति इस नश्वर जग में,
दुनिया में कायम रखेगी उसका मान-सम्मान।
बचपन में उससे थी बच्चे की,
फिर बच्चे से हो उसकी पहचान।
मात-पिता की आंखों की
पुतली होती उसकी संतान।
पालन-पोषण और संरक्षण में
खपा देते हैं निज सकल जहान।
ये वृद्धाश्रम दिखाते हैं विमुखता,
मातृ-पितृ प्रेम का हैं अपमान।
बचपन में उससे थी बच्चे की,
फिर बच्चे से हो उसकी पहचान।