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Shakuntla Agarwal

Abstract

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Shakuntla Agarwal

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औरत

औरत

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बचपन से बुढ़ापे तक,

कितने ही ज़ख्मों को,

सहेजे जीती रहती है वो !


ज़ख्म नासूर भी बन जाए,

फिर भी खामोश रहती है वो !

ज़ख्म में नमक का काम करते हैं लोग,

फिर भी मरहम पट्टी के लिए

तैयार रहती है वो !


आबरू को आँचल में समेटे,

दर - दर भटकती रहती है वो !

गिद्ध सी नज़रें टटोलती हैं जवानी,

फिर भी पाक - साफ़ रहती है वो !


बहकावे में आकर कहीं बहक ना जाऊँ,

इसी गुथी को सुलझाती रहती है वो !

हया का पर्दा कहीं सरक न जाए,

"शकुन" इसी चिंता में मग्न रहती है वो !


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