औरत
औरत
बचपन से बुढ़ापे तक,
कितने ही ज़ख्मों को,
सहेजे जीती रहती है वो !
ज़ख्म नासूर भी बन जाए,
फिर भी खामोश रहती है वो !
ज़ख्म में नमक का काम करते हैं लोग,
फिर भी मरहम पट्टी के लिए
तैयार रहती है वो !
आबरू को आँचल में समेटे,
दर - दर भटकती रहती है वो !
गिद्ध सी नज़रें टटोलती हैं जवानी,
फिर भी पाक - साफ़ रहती है वो !
बहकावे में आकर कहीं बहक ना जाऊँ,
इसी गुथी को सुलझाती रहती है वो !
हया का पर्दा कहीं सरक न जाए,
"शकुन" इसी चिंता में मग्न रहती है वो !
