और सिर्फ़ मैं !
और सिर्फ़ मैं !
जीवन के सफ़र में,
इस मोड़,
पर अब खुद को,
खोजने लगी हूं,
किताबों में कोई
उत्तर मिल जाए,
या किसी शाम को,
टहलते - टहलते,
बागों और पहाड़ियों में,
प्रकृति से एक शाम,
कुछ बतिया लिया जाए,
कहां निकल पाती हूं,
इस उधेड़बुन से,
अब रिश्ते - नाते,
की परख में,
खुद को खरा,
साबित करते - करते,
मन थक गया हैं,
खोजना है,
मुझको खुद को खुद मैं,
मैं को चल पड़ी हूं
उस डगर पे
जहां मैं और मेरी दोस्त,
किताबें साथ रहती है,
कुछ सुकुन के पल,
अकेले में बिताने को,
हर लम्हा अब,
बेकरार सा लगता है।