अस्तित्व.....
अस्तित्व.....
जा रही थी
एक मदमस्त चाल से
यानि कुछ इतराती - सी इठलाती - सी
जा रही थी वो खुद ही अपने अस्तित्व को मिटाने
समर्पित होने जा रही थी युग - युगों तक
खनक थी उसकी आवाज में
लहर थी उसके आंचल में
तृप्त करती जा रही थी जमीं को वो
बस यही देख मैंने कहा उससे
उचित है ये समर्पण भी
मगर जिंदा रहने तलक अस्तित्व के
ये सुनते ही उसने लहरा दिया
आंचल एक खुले वितान में
मानो वो समझ गयी हो बारीकी मेरे हर अल्फाज की
आमदा हो गयी मेरी बात मानने पर
अब समेट लिया है उसने खुद को एक छोटे से दरिया तलक
मगर खुश है इस बात से
अब कायम है उसका अस्तित्व उसके पैरों पर
और अब उसकी पहचान किसी गैर की मोहताज नहीं।
