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अंतर्चेतना

अंतर्चेतना

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मान लो कि जी रहा हूँ

इस दुनिया में अकेला हूँ


किसी का इंतजार कर रहा हूँ

 िकतनी ही सिदॅंया बीत गई

तेरे इंतजार में।


मैं हूँ कि नहीं मुझे भी पता नहीं

इस इंतजार में सारी रात बीत गई

यह बात किसके भीतर खोजूँ

कि मैं हूँ कि नहीं।


तुझे ढूढाँ हर जगह पर तूँ मिला ही नहीं 

हर वक्अत लग रहा है कि तू मेरे ही नहीं

इस वक्अत के दायरे ने मुझे इस तरह बॉंंधा कि

मैं तेरे बिना जीना ही भूल गया हूँ

कि मैं हूँ कि नहीं |



हर सखस के अपने दायरे हैं

लेकिन जब से आपसे मिला 

न वक्अत न अपने आप का होश हैं

कि मैैं हूँ कि नहीं


मैं चाहता हूँ हमेशा तेरे पास रहने के लिए

पर वक्अत हैं कि थमता ही नहीं तेरे पास रहने के लिए 

मैं यहाँ-वहाँ नहीं तेरे भीतर ही हूँ

अ र कभी वक्अत मिले तो जरूर महसूस करना

क्अयोंकि इस तरह सायद तुम मुझे समझ पाउँ

कि मैं हूँ कि नहीं






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