"अंत की दुनिया"
"अंत की दुनिया"
"अंत की दुनिया"
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दुनिया का अंत यूं नहीं होता
न ही किसी धमाके के साथ,
बल्कि एक सिसकती हुई आवाज़ में
धीरे-धीरे, चुपचाप ढलता है।
अप्रैल — सबसे क्रूर महीना है,
और मई — बुराई की सीमाएं लांघ जाता है।
कविता,
अक्सर समझ में आने से पहले ही असर कर जाती है।
पर असर को टिकने के लिए
संवेदना का होना ज़रूरी है।
हर क्षण,
एक नया आरंभ होता है —
और उसी में छिपा होता है
एक सूक्ष्म अंत भी।
मनुष्य,
बहुत अधिक यथार्थ नहीं सह सकता।
चिंता — रचनात्मकता की परिचारिका है।
अतीत को
वर्तमान जितना ही बदल सकता है,
जितना कि वर्तमान
अतीत द्वारा निर्देशित होता है।
विचार और यथार्थ के बीच,
गति और कर्म के मध्य —
एक छाया गिरती है।
वर्तमान और अतीत —
शायद भविष्य में ही विद्यमान हैं।
पर सच्चाई ये है कि
भविष्य तो अभी बना ही नहीं।
हमने अनुभव किया —
पर अर्थ समझ न सके।
सभ्यता की शुरुआत में ही
हमारे अंत का बीज बो दिया गया था।
वह बुद्धि कहाँ है
जो हमने ज्ञान में खो दी?
वह ज्ञान कहाँ गया
जो हमने सूचना में गँवा दिया?
कोई भी प्रणाली इतनी परिपूर्ण नहीं हो सकती
कि मनुष्य को अच्छा बनने की ज़रूरत ही न रहे।
मृतकों का संवाद
अग्नि के माध्यम से होता है —
जीवितों की भाषा से परे।
लेकिन प्रश्न ये है —
क्या तुम अब भी पूरी तरह जीवित हो?
हम हर दिन
एक-दूसरे के लिए थोड़े-थोड़े मरते हैं।
दूसरों के बारे में हमारा ज्ञान
उन स्मृतियों का कोलाज है
जो हमने उनके साथ कभी जिए थे।
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Anup Ashok Gajare
