अनजान सफर
अनजान सफर
मैं शब्द हूँ मन के,
वही अर्थ देता हूं,
जो अहसास हो भीतर।
तुम बसे हो मुझ में
देह में दिल हो ज्यूँ
मौन हर्फ हो चेतना के
कैसे समझाऊं।
जो कभी ओस की फुहार
कभी चिलचिल हाहाकार बन
प्रकटते-आकारित होते हैं
मन आंगन
और तुम्हारा हर अक्स
सहलाता स्पंदित करता है मुझे
भोर की पूजा आरती की
घंटियों की तरह
मेरी चाहत के नगाड़ों की गूंज
कब तक अनदेखे
अनसुना कर पाओगे
कभी तो डोलेगा सिंहासन तुम्हारा
विरह के आरते से
और तब
तुम्हारे मंगल गान के
महा कॉलाज में
कहीं तो अंकित होगी
मेरी प्रार्थना की
कोई धुंधली सूरत
और यह अनदेखा
अनजान सफर
बन जाएगा
संवेदन-साधना की तपोभूमि मित्र।