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Writer Rajni Sharma

Abstract

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Writer Rajni Sharma

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अंजान राहें

अंजान राहें

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अंजान सी राहों पर बढ़ने लगे हैं हम 

लड़खड़ाते थे कदम कभी, अब संभलने लगे हैं हम 


कौन अपना कौन पराया है, ये समझ ही ना पाए थे

मतलबी से रिश्तों को भी दिल से निभाते थे

लेकिन अब कुछ रिश्तों को यूँ परखने लगे हैं हम

अंजान सी राहों पर अब बढ़ने लगे हैं हम 

लड़खड़ाते थे कदम कभी, अब संभलने लगे हैं हम


दुनिया-भर की बातों से अनजान कभी हम रहते थे

कितना ही तकलीफ में हो सब चुपचाप हो सहते थे

लेकिन अब आवाज़ बुलंद करने लगे हैं हम 

अंजान सी राहों पर बढ़ने लगे हैं हम 

लड़खड़ाते थे कदम कभी, अब संभलने लगे हैं हम 


आधुनिकता के इस दौर में कहीं गुमनाम से हो गए थे

खुद की ही कुछ उलझन में ना जाने कहां हम खो गए थे

धीरे-धीरे वो पहचान बदलने लगे हैं हम 

अंजान सी राहों पर बढ़ने लगे हैं हम 

लड़खड़ाते थे कदम कभी, अब संभलने लगे हैं हम


एक झील के जैसे ठहरे थे, यूँ चुपचाप से हो गए थे 

दिल के थे लाखों अरमान, सीने में दफन जो हो गए थे

बहते दरिया-सी आशाएँ अब रखने लगे हैं हम 

सागर-सा विशाल यूँ बनने लगे हैं हम 

अनजान सी राहों पर बढ़ने लगे हैं हम 

लड़खड़ाते थे कदम कभी, अब संभलने लगे हैं हम।


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