"अंधकार ये क्यों फैला है?"
"अंधकार ये क्यों फैला है?"
शाम सबेरे घने अंधेरे
दुख के साए बने सबेरे
मुरझाई इक बेल कमल की
कुम्हलाए हैं कितने चेहरे
अंधकार ये क्यों फैला है ?
कमल ने हमको सिखलाया है
कीच मध्य में बढ़ते जाना
कीचड़ संग तुम रहो सदा पर
कीच कोटि को मत अपनाना
जब कीचड़ ही नहीं रहेगा
कमल तुम्हे फिर कौन कहेगा
फिर विषाद ये क्यों फैला है ?
समय कसौटी पर कसता है
हर मनुष्य को ही डसता है
देखें कितना लौह शेष है
मिट्टी के इस नश्वर तन में
तब जाकर वो कृपण भाग्य
को आदेशित करता है
जाकर उस ललाट पर चमको
तुमको जिसने छीना मुझसे
कीचड़ में जो खिला कमल सा
तू हताश फिर क्यों बैठा है ?
पहन भुजंगों की माला
धर ग्रीवा में विष की हाला
तब प्रचंड वेग गंगा का
तुझसे आश्रय मांगेगा
सत्य तभी सुंदर होगा
जब तुझमें शिव जागेगा
निकल निराशा के चंगुल से
देख प्रकाश यहां फैला है।