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Deepika Kumari

Abstract

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Deepika Kumari

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अंबु

अंबु

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प्रकृति की पावन गोद से

हिम से अंबु बनता है जल।

शुद्ध, पवित्र, स्वच्छ व पावन

बिना मिलावट चलता है जल।


पर्वत, गिरी, भूधर से होकर

इठलाता आता बन निर्झर।

मिलकर सभी वन्य जीवों से

स्वयं को धन्य समझता है जल।


गिरी से गिरकर जब मैदान में

रूप लेता वह पुष्कर का धर।

प्रकृति की अतियुत्तम कृति से

मिलने की उछाह में बहता कल कल।


पर जन के हाथों में आकर

अपवित्र, मलिन व दूषित हो कर।

देख प्रभु की ओर नीर

करुण पुकार क्रंदन करता जल।


यही वह पय है जिस बिन

जीवन नहीं शक्य है नहीं संभाव्य।

फिर भी क्यों नर करें उपेक्षा

क्यों नहीं समझे उदक का बल।


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