STORYMIRROR

Bhavna Thaker

Abstract

2  

Bhavna Thaker

Abstract

अलविदा

अलविदा

1 min
340


टूटती रही बिखरती रही 

की जद्दोजहद खुद से बहुत 

उलझती रही भींचती रही।


ज़िन्दगी के रवैये से

आँखें चुराती रही

कौन चाहता है

महफ़िल ए ज़िन्दगी को

छोड़कर जाना।

 

हमें भी भाती है

दुनिया की रंगीनियां 

लुभाती है हर शै

जीने के लिये जो मनसूब है

चाहती हूँ आज़ाद गगन में

उड़ना मैं भी।


पर नशीब की बलिहारी कहें

या कहे लकीर नहीं लंबी आयुष की 

धीरे धीरे छोटी होती रही ज़िन्दगी

 

सिरा आखरी रह गया,

छूट रहे रिश्ते सारे

टूट रही हर नब्ज़,

बोझिल आँखें बंद हो रही है।


तम से उजाले की और

दो बाजुएँ पुकार रही हैं,

उपर आसमान में बादलों के पार

लिये जा रहे हैं।


अलविदा मेरे इस जन्म के

सारे रिश्तों को 

है अगर कोई दूसरा जन्म

तो मिलेंगे कभी कहीं

किसी रिश्ते में बंधे।


न रोक पायी

न आवाज़ दे सकी खुद को,

मैं खुद को जाते हुए

सिर्फ देखती ही रह गयी।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract