अल्हड यादें
अल्हड यादें
आज न जाने बैठे बैठे फिर
अतीत के पन्ने पलटने लगी थी
जिनमें कितने दर्द के लम्हे थे छुपे
लेकिन उस दर्द पर भारी थीं
मेरी चंद खुशियाँ जिनको
याद करते ही मुस्कुरा देती हूँ मैं
उन अल्हड यादों का हुजूम
हिलोरें लेता है आज भी ज़हन में
याद आता है कोमल बचपन
जब मन मुक्त था चिंताओं से
फ़िक्र तो ज़िन्दगी का
हिस्सा ही नहीं थी
तब बड़े फक्र से सब कुछ
अपना लेती थी
ज़िन्दगी कठिन होगी कभी
इसको भी झुठला देती थी
कभी सूरज से आँख मिलाती
तो कभी दोनों हाथ उपर फैलाती
शायद उन्मुक्त गगन को मैं
समेट लेना चाहती थी बाँहों में
भागती थी तितलियों को पकड़ने
कभी बारिश में खूब भीग जाती थी
थिरकते थे पैर सड़कों के तलइयों में
छै छपाक की ताल मैं बजाती थी
कभी बनाकर नाव पानी में दौड़ाती
तो कभी कागज़ी जहाज उड़ाती थी
मन को भाती थीं वो सुन्दर कोपलें
उनको छूने को छलाँग लगाती थी
न जाने कितने जुगनूओं को
कांच की बोतल में समेटकर
लालटेन बनाए हैं मैंने
जिन्हें रात में आज़ाद कर
खुले आसमान में उड़ाती थी
तारों की गिनती की होड़
जब लग जाती थी
बड़ी ध्यानमग्न होकर
मैं भी गिनने लग जाती थी
तारों के गणित की उधेड़बुन में
ना जाने कब मौका पाकर
माँ के आँचल में सिमट जाती थी
थक हारकर माँ की गोद में
कब मेरी आँख लग जाती थी
नहीं आडंबर था छुपा कोई
हर याद में अजब सादगी है
धूमिल नहीं होतीं वो अल्हड़ यादें
उनमें आज भी वही ताज़गी है !