अक्स
अक्स
काश कि कोई धोखा
कहीं फरेब ना होता
इंसान का इंसान से
कोई भेद ना होता।
वह घूमता परिंदों सा
उन्मुक्त खुले आसमान में
आसमान का वृहद आकार
समाता खोल दिल के द्वार।
रोशन सूरज का उजाला
करता दिमागी अंधेरे का हास
चुन लिया है जो उसने आज
इस चारदीवारी, उसके अंधेरे को।
वह खुद का साया देख कर भी
डर जाता है बेतरह
जो कि अक्स है
उसके ताउम्र के कर्मों का।