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Dr. Anu Somayajula

Abstract

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Dr. Anu Somayajula

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अक्ल के दुश्मन हुए हैं सारे

अक्ल के दुश्मन हुए हैं सारे

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प्रिय डायरी

सोच समझ पर पड़े हैं ताले,

अकल के दुश्मन हुए हैं सारे।


भरा-भरा सा घर आंगन

रहते सारे शांत मन,

बीच रात कोई बोला-

‘चलो- चलो निकलो घर से’;

बांध गठरिया आनन- फानन

निकल पड़े-

अनजान डगर पर,

छूटी गलियां, छूटा चौवारा

अब बीच सड़क पर खड़े हैं सारे

अकल के दुश्मन हुए हैं सारे।


यहां- वहां से, जहां- तहां से,

जाने कहां- कहां से-

दिशाहीन, भ्रमित पधारे;

सोच रहे हैं अब क्या होगा!-

आगा नहीं दीखता है,

बंद हुए पीछे के भी अब रस्ते सारे।

अकल के दुश्मन हुए हैं सारे


फिर कोई बोला

‘चलो- चलो’-

सारे निकले बिना विचारे

राह पकड़ या पगड़ंड़ी,

धर कर ठूंस दिया सबको

अनजानी छत के नीचे;

अपनी छत की याद में रहते रोते सारे!

अकल के दुश्मन हुए हैं सारे।


अब कुछ ना सुनती, कुछ न समझती,

अब कोई भी आवाज़ न आती

तब भी उठ पड़ती है,

बस चल पड़ती है,

भीड़ अब-

भेड़ों की रेवड़ हो गई है

गुमनाम गड़रिया देख रहा है चित्तर सारे

अक्ल के दुश्मन हुए हैं सारे।                           


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