अक्ल के दुश्मन हुए हैं सारे
अक्ल के दुश्मन हुए हैं सारे
प्रिय डायरी
सोच समझ पर पड़े हैं ताले,
अकल के दुश्मन हुए हैं सारे।
भरा-भरा सा घर आंगन
रहते सारे शांत मन,
बीच रात कोई बोला-
‘चलो- चलो निकलो घर से’;
बांध गठरिया आनन- फानन
निकल पड़े-
अनजान डगर पर,
छूटी गलियां, छूटा चौवारा
अब बीच सड़क पर खड़े हैं सारे
अकल के दुश्मन हुए हैं सारे।
यहां- वहां से, जहां- तहां से,
जाने कहां- कहां से-
दिशाहीन, भ्रमित पधारे;
सोच रहे हैं अब क्या होगा!-
आगा नहीं दीखता है,
बंद हुए पीछे के भी अब रस्ते सारे।
अकल के दुश्मन हुए हैं सारे
फिर कोई बोला
‘चलो- चलो’-
सारे निकले बिना विचारे
राह पकड़ या पगड़ंड़ी,
धर कर ठूंस दिया सबको
अनजानी छत के नीचे;
अपनी छत की याद में रहते रोते सारे!
अकल के दुश्मन हुए हैं सारे।
अब कुछ ना सुनती, कुछ न समझती,
अब कोई भी आवाज़ न आती
तब भी उठ पड़ती है,
बस चल पड़ती है,
भीड़ अब-
भेड़ों की रेवड़ हो गई है
गुमनाम गड़रिया देख रहा है चित्तर सारे
अक्ल के दुश्मन हुए हैं सारे।
