अखिल भावों के महासागर
अखिल भावों के महासागर
दिन रात दुनिया की
पीड़ा की निराशा की,
असफलता की अभाव की
डरावनी सूरतें देख भय होता है।
मुझे ऐसी दिव्य दृष्टि दो
तुम किसी भी रूप में आओ,
तुम्हें पहिचानने में भूल न करूँ
तुम्हें पहिचान ही लूँ।
तुम्हारे नये नये खेल देखकर
मैं ऐसे ही खिल जाऊँ,
जैसे सूर्य की किरणें देखकर
कमल खिल उठता है।
क्या यह सत्य नहीं
इन्हीं सब विविध रूपों में,
तुम ही खेलने आते हो
पैनी नज़र से पहिचान में आते हो
स्नेह वात्सल्य आदि धाराओं के
मूल स्रोत तुम्हीं तो हो,
अखिल भावों के महासागर हो
सभी सम्बन्धों में प्रभु तुम्हीं तो हो।