अकड़
अकड़
जिंदगी भर रहा अकड़ में
ना मिला कोई हमसफ़र पूरे सफर में
किसी की मजबूरियां ना समझीं
कभी किसी भी सफर में
गुरूर इतना था कि अपनों के गम में
ना आया कोई आंसू आँखों में
कटते कटते जिन्दगी कट गयी यूँ ही अकड़ में
जब बन गया लाश तब कोई ना था उसके जनाज़े में
देखते देखते बन गया राख़
वो ना दिखी कोई अकड़ उस राख़ में
फिर लब्ज क्यों आज इतने कड़वे हैं तुम्हारे
सब राख़ हो जायेंगे इस सफर में
जिंदगी भर रहा अकड़ में
ना मिला कोई हमसफ़र पूरे सफर में
