अज्ञात
अज्ञात
खयालो में मेरे ख्याल एक आता है
भरम मेरा मुझको यूं भरमा के जाता है
दिखता नहीं है पर कोई बात करता है
नहीं साथ मेरे पर महसूस होता है।
मैं अनजान उससे पर वो जानता है
वो है बस यहीं पर ये दिल जानता है
दिखा जो कहीं पर तो पहचान लूंगी
यही दर्द मेरा है मैं मान लूंगी।
वो झोंका हवा का ये अंदाज़ मेरा है
नहीं जानती मैं क्या अंजाम मेरा है
मिला जो कही तो मैं जान लूंगी
के बाहों में उसको मैं थाम लूंगी।
वहां घूमता है जहां चाहता है
गगन हो फलक हो ये सब चूमता है
भेद सकता है वो दीवारों को मन के
विचारो को मेरे वो भांपता है।
नहीं जानती मैं वो नर है या नारी
नज़र पर टिकी है अब उम्मीद सारी
वो साया है कोई या ज़िंदा सा तन है
अब उसके ही बस मेरा ये मन है।
अभी तक उसे मैंने समझा नहीं है
देखा नहीं है और परखा नहीं है
पकड़ में जो आए तो मैं बाँध दूँगी
मेरी हर हरज़ का मैं हिसाब लूंगी।
कहूँगी नहीं कुछ जुबान से मैं अपनी
फिसलने न दूँगी मैं जज़्बात अपनी
जलाकर उसे राख मैं तब करूंगी
समाधी पे उसके हवन मैं करूंगी।

