STORYMIRROR

अज्ञात

अज्ञात

1 min
15K


इक अज्ञात हो तुम मेरा 

जिसे जान कर भी नहीं जानता मैं 

हर ज्ञात अज्ञात हो जैसे 

तेरे साथ गुजारा हुआ हर लम्हा 

पड़ाव भी है और मंज़िल भी

सदियों भर का पड़ाव और

 क्षण भर की मंजिल तू 

मेरा खुद का ज्ञात भी 

उसी में साँस लेता है 

मुझमें मेरे होने के बावजूद 

मेरा बहुत कुछ अज्ञात है मुझसे 

तुझसे मिलने पर जो 

तड़प के बाहर आ जाता है

मेरा ही मैं मुझको और मैं उसे 

अजनबियों की तरह देखते हैं 

इक तेरी गंध मिला देती है जैसे हमको 

अपनी ही घाटियों में उतरना 

अक्सर मुश्किल तो होता है मगर 

जिनको जाना है बहुत दूर 

उन्हें उतरना ही होता है 

ब्रह्मांड की तरह चेतना को विश्राम कहाँ 

जब कभी मिलती है विश्रांति 

खुद के कहीं होने का आभास होता है 

अपने ही अजनबीपने में ग़ुम

हमकिसी और में खोजा करते हैं खुद को 

एक झलक भी अपनी उसमें दिखाई देने पर 

कितना खुश हो जाते हैं हम

अपने ज्ञात-अज्ञातों में रहते हुए 

अपने ज्ञात-अज्ञात को परिभाषित करते हुए 

खुद अपरिभाष्य रह जाते हैं हम 

खुद से अजनबी रहते हुए 

इक सूदूर यात्रा-पथ के राहगीर हम 

इक अंतहीन अतृप्ति से प्यासे हम 

इक याचक की तरह जीते हुए हम 

नहीं जानते कि जीते हैं या मरते हैं हम !!

 


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract