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मन

मन

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मन को भी तू अपने 

अधरों से छूकर तो देख 

प्यासा है वो भी इतना ही

कभी तो तू निरखकर देख 

ये जो संस्कार,ये जो किताबें 

मन को अपने देखने न दें 

इन सब जालों को हटाकर 

तू खुद को आईने-सा देख 

मन झील है,मन समन्दर है 

मन आकुल है,मन बेबस है 

मन हवा है,मन चंचल है 

फिर भी तू जो चाहे तो 

इसको एकाग्र कर के देख

या तो मन से भागता तू 

या फिर गुलाम मन का हो जाता 

मन को क्यूँ पवित्र बताता 

ज़िस्म को तू क्यूँ पापी कहता 

मन ब्रह्मांड है मन विराट है

मन ही सूक्ष्म,मन ही शून्य है 

मन इक अभीप्सा, मन इक लिप्सा 

मन मूरत है ,मन ही मिट्टी 

मन को तूने भला कब समझा 

मन को तूने क्या बना छोड़ा 

सब पाकर भी जो न अघाये 

कैसा ये तेरा बेकल मन है 

खुद की प्यास भी समझ न पाए 

ये कैसा तेरा पागल मन है 

मन को मन से छूकर देख 

मन को तन से छूकर देख 

तन और मन को बुनकर देख 

तन को तन से गुनकर देख 

बन न तू कोई कामना अधूरी 

बस अपने मन में समाकर देख


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