ऐसे ही नहीं विराट बनता है!
ऐसे ही नहीं विराट बनता है!
ऐसे ही नहीं कोई विराट बनता है !
तपता है वह, जलता है वह।
अग्नि की ज्वाला में तपकर
पिघलता है, निकलता है।
लोहे के सांचे में ढलकर आकार खुद में बदलता है,
ऐसे ही नहीं कोई विराट बनता है।
जीवन के हर उथल-पुथल में खड़ा खुद को रखने का साहस उर में रखता है ,
आलोचनाओं की जद्द में रहने के बावजूद भी चमक अपनी बिखेरता है ।
विरोधियों की वाक्-वार की गहराई को अपने बल्ले से जवाब भरता है।
नये नित्य कीर्तिमान रचकर खुद में नवरस भरता है।
ऐसे ही नहीं कोई विराट बनता है।
