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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Tragedy Action Classics

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हरि शंकर गोयल "श्री हरि"

Tragedy Action Classics

जिंदगी

जिंदगी

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ये जो रोज रोज कुछ टूट रहा है 

यह "विश्वास" है या कुछ और है 

मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ 

जिंदगी जीने की चाह में 

मैं और भी टूटता जा रहा हूँ।


दिल में कुछ खाली सी जगह हो गई है 

वहां पर निराशा आकर जम गयी है 

संशय के बादल चारों ओर मंडरा रहे हैं

असमंजस की घनघोर बरसात हो रही है

"मक्कारी" के दलदल में धंसता ही जा रहा हूँ।


जिंदगी जीने की चाह में मैं और भी टूटता जा रहा हूँ

आंसुओं का समंदर हिलोरें मार रहा है

तीखे शब्दों का नमक और खारा कर रहा है 

नफरत का प्रदूषण फैल रहा है चारों तरफ 

सांस लेना भी अब तो बहुत दूभर लग रहा है 

मुखौटे के कारण चेहरे पहचान नहीं पा रहा हूँ 

जिंदगी जीने की चाह में मैं और भी टूटता जा रहा हूँ। 


जुबान को कसैला स्वाद शायद भा गया है

इसीलिए तो गाली गलौज का जमाना आ गया है 

"मान सम्मान" डर के मारे कहीं छुप गया है 

"अहंकार" चौराहों पर "अट्टहास" कर रहा है 

न्याय अन्याय के बीच अंतर खोज नहीं पा रहा हूँ 

जिंदगी जीने की चाह में मैं और भी टूटता जा रहा हूँ।।


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