अगर कह दूँ
अगर कह दूँ
बहुत कुछ अनकहा है मेरे और तुम्हारे बीच
पर अगर कह भी दूँ तो क्या समझ पाओगे तुम.?
रोज़ाना पूछते हो मेरी खामोशी की वजह
पर क्या मेरे अंदर के शोर को संभाल पाओगे तुम.?
अगर कहूँ कि उलझी हुई हूँ अपनी कशमकश में
तो क्या इस गुत्थी को सुलझा पाओगे तुम.?
अगर कहूँ कि हज़ारों दाग़ हैं मुझमें
तो क्या चाँद की तरह मुझे अपना पाओगे तुम.?
अगर कहूँ कि चारों ओर अंधेरा सा भरा है मुझमें
तो क्या मेरी जिंदगी के एक जुगनू बन पाओगे तुम?
अगर कहूँ कि जीवन में हारा हुआ महसुस होता है
तो क्या मुझमें जीत का उत्साह भर पाओगे तुम.?
अगर कहूँ कि बताती नहीं हूँ पर परेशानियां बहुत है मेरे पास तो क्या उनका समाधान निकाल पाओगे तुम.?
अगर कहूँ कि हर वक्त अपने ख्यालों में मगन रहती हूँ
तो क्या मेरे दिमाग की अव्यवस्था को शांत कर पाओगे तुम?
अगर कहूँ कि खुद को हमेशा दूसरो से कम आंकती हूँ
तो क्या मेरे आत्मविश्वास को फिर से वापस ला पाओगे तुम?
अगर कहूँ कि कोई प्रतिभा नहीं है मुझमें
तो क्या मेरे गुणों को ढूंढ पाओगे तुम.?
अगर कहूं कि अच्छा नहीं लगता मुझे ये दुनिया का दिखावटीपन
तो क्या मेरी इस अलग सोच को अपना पाओगे तुम.?
अगर कहूँ कि जीना मुश्किल सा लगता है अब
तो क्या मेरे जीवन को एक आसान डगर दे पाओगे तुम?
तुम खुले गगन के पंछी हो
पिंजरे में बंद सोच को नहीं समझ पाओगे।
तुम जीना जानते हो
बेबस मन की जंजीरों को नहीं तोड़ पाओगे।
तुम सूरज की तरह चमकते हो
ढले हुए चेहरे को नहीं पढ़ पाओगे।
तुम हर तरह से संपन्न हो
किसी से पीछे छूटने के डर को नहीं जान पाओगे।
तो अगर कह भी दूँ मैं ये सब कुछ तो क्या तुम सिर्फ सुन भी पाओगे?

