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Anita Sudhir

Abstract

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Anita Sudhir

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अबाध चक्र

अबाध चक्र

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सिंदूरी आभा लिए 

पर्वतों से उतरती सुरमई सांझ 

सागर किनारे 

हो मौन मुखरित,


आ बैठी है चौखट पर

कर रही है इन्तजार

कुछ थके पाँवों का,

दिन भर की कड़ी धूप,


अथक परिश्रम से हो बेहाल,

अब घर लौटने को है बेकरार!

सांझ जरा हट के बैठो चौखट से

नीड़ मे आते परिन्दों को

आने का रस्ता दो

निशा भी राह तक रही

तुम्हारी जगह लेने को,

थके पथिक को कुछ 

सुकून देने के लिए।


बीतेगी रात,

कोमल पंखुड़ी 

रवि किरणों के स्पर्श 

से मुखरित हो उठी।


फिर इक नयी सुबह आएगी

नयी उर्जा का सन्चार लिये।

पहाड़ों से उतरती धूप

का, देखा जब भव्य रूप


सौंदर्य से इसके हुए मुग्ध 

अचंभित हो ,हुए निःशब्द 

अधीर हो सुनहरी किरणें

मिली धवल हिम कणों से जब

परावर्तित हो पल भर में


चांदी सी चमक पहाड़ों 

पर चहुँ ओर छा गयी

देखते देखते चांदनी ने 

ओढ़ ली सुनहरी चूनर


पल में यूँ लजा कर

फिर लाली हो गयी मुखर 

जैसे हो नई दुल्हन का रूप।

जीवन का अबाध चक्र 

यूँ ही चलता रहेगा।


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