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Sudha Singh 'vyaghr'

Abstract

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Sudha Singh 'vyaghr'

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कातर स्वर

कातर स्वर

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कातर स्वर

करे धरणि पुकार ।

स्वार्थ वश मनुष्य

अपनी जड़ें रहा काट।।

संभालो, बचा लो

मैं मर रही हूँ आज।

भविष्य के प्रति हुआ

निश्चिंत ये इन्सान।


उजाड दिया कानन

पहाड़ दिए काट।।

फैलाता रहा गंदगी

नदियों को दिया बांध।

निज कामनाओं हेतु

करता रहा अपराध।।


न चिड़ियों की अब चहक है

न ही कोकिल की कूक।

बढ़ती हुई इच्छाएँ

मिटती नहीं है भूख ।।


गगनचूमती अट्टालिकाएँ

प्रदूषण रहा बोल

चढ़ता रहा पारा।

घर में कैद मनुज

दिया स्वयं को ही कारा।।


क्यों सुप्त हो बोलो!!!

अपने अनागत को तोलो!!

मेरी जर्जर स्थिति भांप जाओ!!

अब तो जाग जाओ... अरे अब तो जाग जाओ।


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