अब तक मैं हारा नहीं
अब तक मैं हारा नहीं


निकला मैं राह दिखी जो मुझे,
मंज़िल का कोई ठिकाना नहीं।
खुद को ही खैर समझ ना सका,
फिर राहों ने भी तो अपनाया नहीं ।।
कर जंग खुद से मैं चलता चला,
गैरों को न दोश लगाया कभी ।
इरादों मे नेकी, है दिल मे सच्चाई,
धोके से किसी को फँसाया नही ।।
सच्चाई, इन्साफ़ का ऐसा नशा की,
हकीक़त को भी अपनाया नही ।
जिन्होनें था जीना सिखाया मुझी को,
उन्ही को ना समझ मैं पाया तभी ।
जड़ से टूटी हुई डाली हो जैसे,
सागर से दूर किनारा कहीं।
है गलत ये की तुम हो सहारा उन्ही का,
सच ये है की तेरा सहारा वही ।।
है जीना जो तो नीडर बन के है जीना,
खुद को ना है झुकाया कभी ।
है जीत से पाला पड़ा जो सफर मे,
गुरुर ना मैने दिखाया कभी ।।
लाख हो कोशिशें डराने की हमको
हो जुलमो का कोई ठिकाना नही ।
चिंगारी समझते कहीं क्या हमे तुम,
नफ़रतें जला दूँ, मैं ज्वाला वही ।।
है मुझको मिटाने चले तुम कहाँ से,
मेरे इरादों का तुम को ठिकाना नही ।
बंजर जमीं मे मैं जीवन जगा दूँ,
इसलिए की अब तक मैं हारा नही ।।