अब नहीं
अब नहीं
अब नही रोती मै,
उन चंद कागज के तुकड़ो
को सीने से लगाकार
अब नही लेती मै
रातों में बेबस सिसकियाँ,
सारे दरवाजें खिड़कियां लगाकार
अब खुद ही बदल दिया है मैंने
अपने ही जीने का तरीका
बड़े ही सलिकेसे।
अब नही गुजरती मै तन्हा सी
अकेली मन की गालियों में
दहकता सा दीपक जलाकर
अब अपमान कें घूँट पीकर,
आसुओं से आंचल नही भिगोया करती मै
अपने तुटे सपने समेटकर
आज् शरीर पर पड़ी अनगिनत
रिवाजों किं बेड़ियाँ
खुद ही जमीदोश हो गई
जो रखती थी मुझे डराकर
अब् आज् आवाज में
शेर किं दहाड और
हौसलों में चील के पंख सी
ताकद लेकर उड़ती हूँ
सब कुछ भूलाकर
अब जीने का नशा सर
चढ़कर बोलता हैं मुझ को हँसाकार,
के रख दे तू सारे दर्द-ओ-गम
काही जाके दफनाकर
और कहता है तू भी जरा इतराके
महक जा फूलों सा इत्र लगाकर
अब नहीं रोती मैं उन चंद कागज के
टुकड़ों को सीने से लगाकार
अब नहीं लेती मैं रातों में
बेबस सिसकियाँ सारे
दरवाजें खिड़कियां लगाकर।
