लाव्हा
लाव्हा
एक् दिन दबी चुप्पी तूटेगी
अंतरात्मा से एक चीख निकलेगी
जो चिर कें रख देगी
तुम्हारे दिलो-दिमाख को
ये वो चिंगारी हैं,
जो तुम हर पल
मेरे तन पर, मेरे मन पर
यूंही, आते जाते फ़ेकते हो.....
कभी समाज कें नाम पर्
कभी रीति रिवाजों के नाम पर्....
वही चिंगारी मेरे मन में
मेरे जेहन में
मेरे दिल् की गेहराई में दफ़न
हो जाती हैं...
पर मैं सामज के झुटे
आईने में,
शांत और खुश
दिखाई देती हुं.....
पर ये चिंगारी धिरे धिरे
अंदर ही अंदर
मेरे वाजुद को
मेरे अस्तित्व को
झुलसा रही हैं
तेहस नेहस कर रही हैं
लेकिन नही.....
अब नही....
और नही.....
ये चिंगारी अब
लाव्हा बन चुकी हैं
जो कभी भी
फ़ुट जायेगी, फ़ट जायेगी
और ले डूबेगी तुम्हें
और तुम्हारे इस्
ढकोसले भरे समाज को
अपने ही अंदर.....
उसी आग में.....
उसी तपन को....
उसी तड़प को....
तुम्हें मेहसुस कराने के लिये
और तुम् चिख भी नही पाओगे
आक्रोश भी नही कर पाओगे
क्यूं की ये वही छोटी छोटी
चिंगारी से
बना लाव्हा हैं
जो तुम् सदियों से
हमे उसमे जलाते आये हो,
डुबातें आये हो.....
वो अब् तुझे ले डुबेगा
अनंत तल तक
