अब नहीं होगी अग्निपरीक्षा
अब नहीं होगी अग्निपरीक्षा
समाज तू कहता है मैं मिट्टी का घड़ा हूं
पर मिट्टी का घड़ा तो आजकल
किसी कोने में पड़ा है
तो क्या समझूं मैं ?
इंसान को मेरा शौक
बस ज़रूरत में चढ़ा है।
कड़ी धूप में प्यास बुझाने
उस घड़े की शीतलता की मांग करते हैं
थोड़ा सा भी दरार आजाए
तो उसे यहां-वहां बिखेरते हैं।
आख़िर कब तक ?
सब यूँ ही आज़माते रहोगे मुझे
बस एक मिट्टी का घड़ा
कब तक कहते रहोगे मुझे ?
अब मेरी काया बदलने लगी है
सख्त ढांचे में मेरी भी छवि ढलने लगी है
मिट्टी से चट्टान बनकर उभर चुकी हूं
अब हवायें भी मेरे रुख़ में चलने लगीं हैं।
मैं अपने इच्छाओं को सम्मान देने लगी हूं
मेरी प्रतिष्ठा को मैं ख़ुद आकार देने लगी हूं
उम्मीद है तुझसे बस सहमत रहना हमेशा
जो मैं अपने सपने साकारने लगी हूं।
अब बंद करदे मुझे तुच्छ समझना
मैं आदिशक्ति का स्वरूप हूं!
मेरे अस्तित्व का विभेद मत करना
मैं अपनी आत्मा का रूप हूं।
आख़िर कब तक तू परखता रहेगा ?
मेरे दामन के दायरे को
हर कसौटी सिर्फ मेरे लिए ही क्यूं ?
अब बदलदे अपने नज़रिये को।
तू मग्न रहता है हर बार
हर एक सीता की अग्निपरीक्षा लेने में
कालिका दहन क्यूं भूल जाता है ?
अब भी समय है संभलने में।
मेरे चरित्र का प्रमाण में क्यूं देती रहूं ?
जब तू नहीं कर सकता मेरे आबरू की रक्षा,
कभी कुछ मर्दों के भी लेके देख
सीता जैसी अग्निपरीक्षा !
