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Praveen Gola

Abstract

4  

Praveen Gola

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अब नहीं बाकी रही

अब नहीं बाकी रही

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अब नहीं बाकी रही ,
जान इस ज़िस्म में ,
फिर भी तेरे दीदार की तलब ,
बाकी है इस ज़िस्म में |

बंद पलकें खुल रहीं ,
बार - बार तेरे दीदार को ,
देख मेरी हसरतें बेगैरत ,
काफी हैं इस ज़िस्म में |

जाने क्यूँ जाते - जाते भी ,
तेरी आवाज़ कानों में आती है ,
मेरे मरे हुए अरमानों को ,
बेवजह जगा जाती है |

अब नहीं बाकी रही ,
जान इस ज़िस्म में ,
तब भी तेरे लबों की ललक ,
आती है इस ज़िस्म में |

क्या कुसूर था बता मेरा ?
जो तूने मुझे ठुकरा दिया ,
मेरी भरी जवानी पर अपनी ,
बेवफाई का खंजर गड़ा दिया |

अब नहीं बाकी रही ,
जान इस ज़िस्म में ,
फिर भी तेरी हँसी की कशिश ,
मुझे लुभाती मेरे ज़िस्म में |

ये ज़िस्म अब तार - तार सा होने लगा है ,
होशो - हवास भी बेहोशी में खोने लगा है ,
खुली आँखें राह तकती खुली रहेंगी ,
देख मेरे ज़िस्म में रूह सोने लगा है |

अब नहीं बाकी रही ,
जान इस ज़िस्म में ,
फिर भी तेरे साथ बिताये पलों की कसक ,
मुझे चिढ़ाती मेरे ज़िस्म में |

आ जाना जब तुम मेरी मैयत सजेगी ,
सारे शिकवों की तब एक माला फिरेगी ,
जी भर कर तब निकालना गुस्सा मुझपर ,
मेरे ज़िस्म की तब कोई हरकत उफ़ ना करेगी ||











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