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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

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Vijay Kumar parashar "साखी"

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आस्तीन के सांप

आस्तीन के सांप

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आस्तीन के सांप आजकल हर जगह पर बैठे है

खोदते है बाहर वो भीतर कुंडली मारकर बैठे है

जितना उसे दूध पिलाते है, वो उतना फन उठाते है,

ये आस्तीन के सांप दूध पीकर जहर लिये बैठे है


हम लोग बाहरवालों को तो यूँ ही कसूर देते है,

असल आस्तीन के सांप तो रिश्तेदारों के बेटे है,

इन रिश्तेदारों को हम हर राज उगल कर बैठे है,

ये राजदार ही हमारा, हर महफ़िल में कत्ल कर बैठे है,

आस्तीन के सांप आजकल हर जगह पर बैठे है


ऐसे आस्तीन के सांपों से बचना इतना सरल नही है,

ऐसे सांप हर गली, हर नुक्कड़, हर चौराहे पर बैठे है

इन आस्तीन के सांपों को दिलो में जगह मत दो,

ये हृदय में रहकर ही हृदयाघात करने को बैठे है


गर तुझे बचना है साखी इन आस्तीन के सांपों से,

हृदय को बना शोला सा, दिमाग को नहला शबनम से

ये आस्तीन के सांप भीतर जाने से पहले जल कर बैठे है

वो ही शख़्स यहां आस्तीन के सांपों को मार पाता है,

खुद के भीतर जो सत्य की ज्योति जला कर बैठे है

आस्तीन के सांप आजकल हर जगह पर बैठे है


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