आलिंगन
आलिंगन
अर्क रश्मियों से परावर्तित
रंग प्रकृति में बिखरने लगे
श्वेत श्याम सी ज़िन्दगी में
कैसे यूँ इंद्रधनुष उभरने लगे
प्रणय स्मृतियों में घुलकर ही
कौतुकवश आगोश मे लेने लगे
स्वीकृत विशुद्ध स्नेह में डूबे
प्रेम भाव तिरोहित होने लगे
आलिंगनबद्ध निश्छल अनुरागी
हर भार से मुक्त...होने लगे
आकुल हृदय के तीव्र स्पंदन से
नयनों से नीर तब बहने लगे
हठ में मौन...ठहर गया था
निरीह शब्द कुछ कहने लगे
टूटे...निष्ठुर अतृप्त उद्गार भी
निशब्द हो स्वीकृति देने लगे
दर्द सरीखे उठे कुछ ज्वार भी
भ्रम का संताप जब सहने लगे
"परकीया" सदा सुहाये...कान्हा
आलिंगन शुद्ध स्वर्ण गहना लगे।